‘वाया फुरसतगंज’ लोकार्पित: हिन्दी साहित्य में नये आंचलिक तत्त्वों के साथ बालेन्दु द्विवेदी का नया उपन्यास

हिन्दी साहित्य में नयी आंचलिक धारा के शीर्ष लेखक बालेन्दु द्विवेदी के नये उपन्यास का लोकार्पण और नाट्य-मंचन कोरोना काल में पूरी सतर्कता के साथ प्रयागराज के उत्तर मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र में आयोजित। युवा और वरिष्ठ श्रोताओं ने बढ़ाया उत्साह।

‘मदारीपुर जंक्शन’ की सफलता के बाद वाणी प्रकाशन ग्रुप द्वारा प्रकाशित बालेन्दु द्विवेदी के दूसरे उपन्यास ‘वाया फुरसतगंज’ के विमोचन और मंचन का कार्यक्रम आज दिनांक 25-02-2021 को प्रयागराज के सर्किट हाउस के निकट स्थित उत्तर मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र में हुआ। पुस्तक का विमोचन इलाहाबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर और सिनेमा के प्रखर अध्येता ललित जोशी करेंगे। और कार्यक्रम के सूत्रधार थे प्रसिद्ध गीतकार एवं कवि श्लेष गौतम। कार्यक्रम में वाणी प्रकाशन ग्रुप की कार्यकारी निदेशक अदिति माहेश्वरी-गोयल भी उपस्थित रहीं।

उपन्यास विमोचन कार्यक्रम के उपरांत उपन्यास पर आधारित एक नाटक का मंचन हुआ जिसका नाट्य रूपांतरण और निर्देशन ‘दि थर्ड बेल’ संस्था के प्रसिद्ध रंगकर्मी और निर्देशक आलोक नायर की टीम ने किया। यह मंचन वाणी प्रकाशन ग्रुप और ‘दि थर्ड बेल’ संस्था की संयुक्त प्रस्तुति रही। बालेंदु जी के पहले उपन्यास मदारीपुर जंक्शन का मंचन भी तीन वर्ष पूर्व यहीं हुआ था जिसे दर्शकों ने काफी सराहा था। इसके उपरांत इसका मंचन लखनऊ, बाराबंकी, उन्नाव,  भोपाल, दिल्ली, दमोह सहित देश के कई हिस्सों में हुआ।

‘वाया फुरसतगंज’ के विमोचन पर इसके मंचन के बारे में नाटक का निर्देशन कर रहे आलोक नायर ने बताया कि इस नाटक की रिहर्सल लगभग एक महीने पहले से से विभिन्न स्थापित कलाकारों द्वारा की जा रही थी। इस नाटक में प्रमुख भूमिका निभायी : सोनाली चक्रवर्ती, गौरव शर्मा, कौस्तुभ तिवारी, सत्यम तिवारी, शिवम यादव, मदन कुमार, दिलीप कुमार, ऋषि दुबे, मोहम्मद आसिफ़, अमितेश श्रीवास्तव, ऋषि, आयुष एवम रविंद्र सिंह, राहुल जायसवाल ने। जबकि मंच की पीछे की तैयारियों में कोणार्क अरोड़ा, अश्विन पांडे, शिवम केसरवानी, दिलीप यादव आदि ने हाथ बंटाया। कलाकारों का मेकअप संजय चौधरी ने किया और लाइट्स की ज़िम्मेदारी आकाश अग्रवाल ने संभाली। संगीत निर्देशन सौरभ तिवारी का था और प्रोडक्शन कंट्रोलर थे मोहम्मद आसिफ। असिस्टेंट डायरेक्टर का काम शिवम यादव ने किया ।

उपन्यासकार बालेन्दु द्विवेदी ने बताया कि ‘वाया फ़ुरसतगंज’ नामक उनका यह उपन्यास इलाहाबाद (प्रयागराज) की पृष्ठभूमि पर ही केंद्रित है और इसमें इलाहाबाद (प्रयागराज) की ठेठ संस्कृति को उकेरने की कोशिश की गयी है। इसके मंचन और विमोचन के लिए इलाहाबाद (प्रयागराज) को चयनित करने के पीछे यह भी एक बड़ा कारण रहा।

उपन्यास की कहानी पर बात करते हुए उन्होंने कहा कि असल में वाया फुरसतगंज की कहानी एक गांव की छोटी-सी घटना के बहाने मुख्यधारा की राजनीति की गहन पड़ताल करती है और इसके रेशे-रेशे को उघाड़ती चलती है।

फुरसतगंज एक ऐसे गांव का प्रतिनिधित्व करता है जिसके अधिकांश निवासी पारंपरिक रोज़गार को छोड़कर, बाक़ी सभी तरह के रोज़गारों से न केवल वाकिफ़ हैं बल्कि इस तरह के कार्यों में बख़ूबी दख़ल भी रखते हैं। इससे बिल्कुल सटा हुआ इसका सहोदर गाँव शाहदतगंज है जिसके निवासी मेहनती हैं; पर दुर्भाग्य यह है कि उनकी भी सारी मेहनत का फायदा फुरसतगंज वालों को ही मिलता है।

ख़ैर..! एक दिन फुरसतगंज में एक ऐसी घटना घटती है कि पल भर में ही यहां का सारा ताना-बाना छिन्न-भिन्न होने लगता है और स्थानीय राजनीति व मुख्यधारा की राजनीति में चुम्मा-चुम्मी शुरू हो जाती है। असल में यहां के जिन्नधारी महात्मा हलकान मियाँ का इकलौता बेरोज़गार पुत्र परेशान अली रात के अंधेरे में पास के ही कुएं में गिर जाता है और उसकी मृत्यु हो जाती है। सुबह पता चलता है कि उसके साथ उसकी इकलौती बकरी भी गिर कर मर गयी। तमाम चैनलों पर ख़बर पसरने लगती है और सूबे के मुख्यमंत्री के हौंकने के बाद ज़िले के नवागंतुक कलेक्टर जबर सिंह गांव का दौरा करने निकल पड़ते हैं।

शुरुआती जांच में इसे दुर्घटना का मामला बताकर रिपोर्ट शासन को भेज दी जाती है। लेकिन बात इतने भर से ख़त्म नहीं होती। परेशान अली अपनी मौत के बावज़ूद सत्ता के गले की फाँस बन जाता है। सबसे पहले इलाक़े में अपने धरने और अनशन के लिए विख्यात पोलो नेता अपने समर्थकों के साथ कचहरी घेर लेते हैं। फिर उनसे पिण्ड छूटते ही दारागंज के ‘नगरवधू अखाड़े की महामंडलेश्वर’ छम्मो देवी द्वारा गांव का भ्रमण किया जाता है और परेशान अली के शहादत स्थल पर शहीद स्मारक बनवाने की घोषणा की जाती है। फिर क्या..! अचानक से सुन्न पड़े स्थानीय राजनीतिक नेतृत्व, सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों सहित प्रशासन में विचित्र क़िस्म की हरक़त दिखाई देने लगती है। देखते-ही-देखते परेशान अली के बहुतेरे हमदर्द निकल आते हैं। कोई परेशान को मज़दूर बताने लगता है, कोई किसान, कोई अभिनेता तो कोई राजनीतिक कार्यकर्ता..!

झूंसी के राजघराने के अन्तिम अवशेष और अब वहां मसान घाट में धूनी रमा रहे बाबू जोखन सिंह को एक साथ कई शिकार करने का अवसर दिखाई देने लगता है। उन्हें न केवल बच्चा तिवारी बल्कि उनके सारे खानदान से अपना पुराना हिसाब चुकता करना है। और ‘अंधेर नगरी चौपट राजा, टके सेर भाजी टके सेर खाजा’ के लिए विख्यात अपने मध्यकालीन पूर्वज राजा हरबेंग सिंह के न्यायप्रिय शासन की स्थापना का स्वप्न देखने लगते हैं। तय होता है कि परेशान को किसान की बजाय मज़दूर बनाने के कुत्सित प्रयास के विरोध में इलाहाबाद-बनारस को जोड़ने वाले जीटी रोड को जाम किया जायेगा। लेकिन इसके पहले कि बाबू जोखन सिंह जीटी रोड को ठीक से जाम कर पाते, उन्हें और उनके बहुतेरे साथियों को पकड़कर विधिवत पीटा जाता है और उन्हें ससम्मान जेल में ठूंस दिया जाता है।

तब राजनीति की आग और दहकने लगती है। हड़िया इलाक़े के विधायक पाखंडी शर्मा इस गिरफ़्तारी के विरोध में सदन में ही अपने साथियों के साथ सभी के कुरते फाड़ने लगते हैं और देखते-ही-देखते पूरी राजनीति निर्वस्त्र होने लगती है।

माहौल गरमाने लगता है और कुछ समय के लिए परेशान अली की मौत की घटना नेपथ्य में चली जाती है और चौतरफ़ा उनकी लाश पर राजनीति की गरमागरम रोटियां सेंकी जाने लगती हैं। जीते-जी जिस परेशान अली की कोई जाति तक नहीं पूछता था; आज सभी के द्वारा उसे अपने हितों से गहरे सम्बद्ध बताने की होड़ मच जाती है।

सबसे बड़ी बात यह कि तरह-तरह से जनता को भरमाने का जो सिलसिला शुरू होता है उससे जनता को भी कोई ख़ास परेशानी होती नहीं दिखाई देती; बल्कि जनता के अधिकांश हिस्से को इसमें ख़ासा मज़ा भी आने लगता है। राजनीति की इस खींचतान और एक-दूसरे को नीचा दिखाने की पुरज़ोर कोशिश में बहुतेरे लोककल और धुरंधर नेता धरे जाते हैं, कुछ नेता बनने की चाह में बाक़ायदा धुने जाते हैं और जेल की रोटियाँ तोड़ते हैं; लेकिन ये सभी जेल से बाहर आकर अपने पिछवाड़े की धूल झाड़कर अट्टहास करने से भी गुरेज़ नहीं करते।

बात यहीं ख़त्म हो जाती तो भी बेहतर होता..! लेकिन राजनीतिक वर्चस्व की लड़ाई में अदना इंसान कैसे मौत के बाद भी सत्ता के मनोरंजन का केंद्र बना रहता है, परेशान अली इसका सबसे बड़ा उदाहरण साबित होता है। हालांकि उसकी मौत को सामान्य बताने वाली सत्ता, अपने खुद के बनाये जाल में इस क़दर फँसती है कि उसे परेशान की क़ब्र खुदवाकर दोबारा जांच की संस्तुति करनी पड़ती है।

लेकिन ‘समरथ को नहीं दोष गुसाईं’ की तर्ज़ पर इस जांच में सरकार के प्रखर विरोधी और मुख्यमंत्री बच्चा तिवारी के लिए निरंतर संकट बनकर उभर रहे विधायक पाखंडी शर्मा, परेशान को आत्महत्या के लिए उकसाने के षड़यंत्र में अपने साथियों के साथ धर लिए जाते हैं। फिर तो एकबारगी तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने का सपना लेकर जी रहे बच्चा तिवारी की बाँछें खिल जाती हैं।

लेकिन बच्चा तिवारी के रास्ते इतने आसान भी नहीं हैं क्योंकि ठीक इसी समय झूंसी के स्वघोषित राजा जोखन सिंह अपने दूसरे पारंपरिक शत्रु बूटी महराज की शिष्या साध्वी छम्मो देवी को बच्चा तिवारी की पारंपरिक सीट पर विधायकी के उम्मीदवार के रूप में खड़ा कर देते हैं। पाखंडी शर्मा जेल से ही हड़िया से परचा भरते हैं। बच्चा तिवारी दोनों जगह से चुनाव लड़ रहे हैं लेकिन दोनों जगह से बुरी तरह से घिरे हुए महसूस कर रहे हैं।

तब इस वार से बचने के लिए बच्चा तिवारी की पार्टी, मृतक परेशान अली के पिता हलकान मियाँ को मैदान में उतारती है ताकि वे पाखंडी शर्मा के पारम्परिक वोटों में सेंधमारी कर सकें और इस प्रकार पाखंडी के लिए विधानसभा का मार्ग हमेशा के लिए बन्द हो जाये।

उधार राजातालाब में छम्मो का जीतना इतना आसान नहीं है। बच्चा तिवारी ने जनबल और धनबल से सबकुछ अपनी मुट्ठी में कर रखा है। लेकिन छम्मो के समर्थन में न केवल मीरगंज और मडुआडीह बल्कि देश के तमाम बदनाम मोहल्लों की नगरवधुएं उतर आती हैं और देखते-ही-देखते सारा राजनीतिक परिदृश्य बदल जाता है।

और विधि का विधान देखिए…! छम्मो देवी न केवल विधायकी का चुनाव जीत जाती हैं बल्कि वे बच्चा तिवारी के तमाम षड्यंत्रों  के रहते हुए मुख्यमंत्री पद की दौड़ में भी सबसे आगे निकल जाती हैं। ज़्यादातर नवविजित विधायक उनके नेतृत्व में सरकार बनाने के लिए मरे जा रहे हैं। कभी मीरगंज की नगरवधू के रूप में समादृत छम्मो का; पहले साध्वी, फिर साध्वी से राजनीतिज्ञ बनना और अब उसे मुख्यमंत्री के रूप मे तख्तनशीन होते हुए देखना;  इन तमाम मंजे हुए राजनीतिज्ञों को रूमानियत की असीम कल्पना से भर दे रहा है। वे खुशी-खुशी पेटीकोट शासन के सामने अपना सबकुछ समर्पित कर खुश हो लेना चाहते हैं।

लेकिन बच्चा तिवारी इतनी आसानी से हार मानने वालों में से नहीं हैं। इसलिए छम्मो देवी के खिलाफ़ चंद घंटों में ही तरह-तरह के षड्यंत्र रचे जाते हैं; उनके पुराने आशिक़ और इलाहाबाद के कलट्टर जबर सिंह सहित पोलो गुरू को, छम्मो को मनाने-समझाने के लिए मैदान में उतारा जाता है ताकि जोखन सिंह अपनी योजना में कामयाब न हो सकें और येन-केन-प्रकारेण छम्मो को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर आसीन होने से रोका जा सके। छम्मो देवी अपने साथ होने वाले इन षड्यंत्रों का सामना किस प्रकार करती हैं, इनसे कैसे निबटती हैं और इस पूरे परिदृश्य में कैसे-कैसे अपने ही लोगों के चेहरे बेनक़ाब होते चलते हैं – यह देखना बेहद दिलचस्प है।

उपन्यासकार शायद यह दिखाना चाहता है कि फुरसतगंज में घटने वाली एक छोटी-सी घटना कैसे सभी के कौतुक का विषय बनकर उभरती है और कैसे चाहे-अनचाहे सभी इसमें एक-एक कर शामिल होते जाते हैं। फिर यह भी कि यह आरंभिक कौतूहल कैसे शासन-प्रशासन के लिए चिंता का सबब बनता जाता है और कैसे न चाहते हुए भी सभी इस घटना के इर्द-गिर्द बुने अपने ही जाले में उलझते चले जाते हैं। इस जाल में उलझने के बाद सत्ता पाने के लिए आपस की होड़, इसकी जद्दोजहद और फिर गलाकाट संघर्ष को पाठक के सामने ले आना ही इस कथानक का मूल मंतव्य है।

वाणी प्रकाशन ग्रुप के बारे में…

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वाणी प्रकाशन ग्रुप भारत के प्रमुख पुस्तकालयों, संयुक्त राष्ट्र अमेरिका, ब्रिटेन और मध्य पूर्व, से भी जुड़ा हुआ है। वाणी प्रकाशन ग्रुप की सूची में, साहित्य अकादेमी से पुरस्कृत 25 पुस्तकें और लेखक, हिन्दी में अनूदित 9 नोबेल पुरस्कार विजेता और 24 अन्य प्रमुख पुरस्कृत लेखक और पुस्तकें शामिल हैं। वाणी प्रकाशन ग्रुप को क्रमानुसार नेशनल लाइब्रेरी, स्वीडन, रशियन सेंटर ऑफ़ आर्ट एण्ड कल्चर तथा पोलिश सरकार द्वारा इंडो-पोलिश लिटरेरी के साथ सांस्कृतिक सम्बन्ध विकसित करने का गौरव प्राप्त है। वाणी प्रकाशन ग्रुप ने 2008 में ‘Federation of Indian Publishers Associations’ द्वारा प्रतिष्ठित ‘Distinguished Publisher Award’ भी प्राप्त किया है। सन् 2013 से 2017 तक केन्द्रीय साहित्य अकादेमी के 68 वर्षों के इतिहास में पहली बार श्री अरुण माहेश्वरी केन्द्रीय परिषद् की जनरल काउंसिल में देशभर के प्रकाशकों के प्रतिनिधि के रूप में चयनित किये गये।

लन्दन में भारतीय उच्चायुक्त द्वारा 25 मार्च 2017 को ‘वातायन सम्मान’ तथा  28 मार्च 2017  को वाणी प्रकाशन ग्रुप के प्रबन्ध निदेशक व वाणी फ़ाउण्डेशन के चेयरमैन अरुण माहेश्वरी को ऑक्सफोर्ड बिज़नेस कॉलेज, ऑक्सफोर्ड में ‘एक्सीलेंस इन बिज़नेस’  सम्मान से नवाज़ा गया। प्रकाशन की दुनिया में पहली बार हिन्दी प्रकाशन को इन दो पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है। हिन्दी प्रकाशन के इतिहास में यह अभूतपूर्व घटना मानी जा रही है।

3 मई 2017 को नयी दिल्ली के विज्ञान भवन में ‘64वें राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार समारोह’ में भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी के कर-कमलों द्वारा ‘स्वर्ण-कमल-2016’ पुरस्कार प्रकाशक वाणी प्रकाशन ग्रुप को प्रदान किया गया। भारतीय परिदृश्य में प्रकाशन जगत की बदलती हुई ज़रूरतों को ध्यान में रखते हुए वाणी प्रकाशन ग्रुप ने राजधानी के प्रमुख पुस्तक केन्द्र ऑक्सफोर्ड बुकस्टोर के साथ सहयोग कर ‘लेखक से मिलिये’ के अन्तर्गत कई महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम-शृंखला का आयोजन किया और वर्ष 2014 से ‘हिन्दी महोत्सव’ का आयोजन सम्पन्न करता आ रहा है।

वर्ष 2017 में वाणी फ़ाउण्डेशन ने दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रतिष्ठित इन्द्रप्रस्थ कॉलेज के साथ मिलकर हिन्दी महोत्सव का आयोजन किया व वर्ष 2018 में वाणी फ़ाउण्डेशन, यू.के. हिन्दी समिति, वातायन और कृति यू. के. के सान्निध्य में हिन्दी महोत्सव ऑक्सफोर्ड, लन्दन और बर्मिंघम में आयोजित किया गया ।

‘किताबों की दुनिया’ में बदलती हुई पाठक वर्ग की भूमिका और दिलचस्पी को ध्यान में रखते हुए वाणी प्रकाशन ग्रुप ने अपनी 51वीं वर्षगाँठ पर गैर-लाभकारी उपक्रम वाणी फ़ाउण्डेशन  की स्थापना की। फ़ाउण्डेशन की स्थापना के मूल प्रेरणास्त्रोत सुहृदय साहित्यानुरागी और अध्यापक स्व. डॉ. प्रेमचन्द्र ‘महेश’  हैं। स्व. डॉ. प्रेमचन्द्र ‘महेश’ ने वर्ष 1960 में वाणी प्रकाशन ग्रुप की स्थापना की। वाणी फ़ाउण्डेशन का लोगो विख्यात चित्रकार सैयद हैदर रज़ा द्वारा बनाया गया है। मशहूर शायर और फ़िल्मकार गुलज़ार वाणी फ़ाउण्डेशन के प्रेरणास्त्रोत हैं।

वाणी फ़ाउण्डेशन भारतीय और विदेशी भाषा साहित्य के बीच व्यावहारिक आदान-प्रदान के लिए एक अभिनव मंच के रूप में सेवा करता है। साथ ही वाणी फ़ाउण्डेशन भारतीय कला, साहित्य तथा बाल-साहित्य के क्षेत्र में राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय शोधवृत्तियाँ प्रदान करता है। वाणी फ़ाउण्डेशन का एक प्रमुख दायित्व है दुनिया में सर्वाधिक बोली जाने वाली तीसरी बड़ी भाषा हिन्दी को यूनेस्को भाषा सूची में शामिल कराने के लिए विश्वस्तरीय प्रयास करना।

वाणी फ़ाउण्डेशन की ओर से विशिष्ट अनुवादक पुरस्कार दिया जाता है। यह पुरस्कार भारतवर्ष के उन अनुवादकों को दिया जाता है जिन्होंने निरन्तर और कम-से-कम दो भारतीय भाषाओं के बीच साहित्यिक और भाषाई सम्बन्ध विकसित करने की दिशा में गुणात्मक योगदान दिया है। इस पुरस्कार की आवश्यकता इसलिए विशेष रूप से महसूस की जा रही थी क्योंकि वर्तमान स्थिति में दो भाषाओं के मध्य आदान-प्रदान को बढ़ावा देने वाले की स्थिति बहुत हाशिए पर है। इसका उद्देश्य एक ओर अनुवादकों को भारत के इतिहास के मध्य भाषिक और साहित्यिक सम्बन्धों के आदान-प्रदान की पहचान के लिए प्रेरित करना है, दूसरी ओर, भारत की सशक्त परम्परा को वर्तमान और भविष्य के साथ जोड़ने के लिए प्रेरित करना है।

वाणी फ़ाउण्डेशन की एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है भारतीय भाषाओं से हिन्दी व अंग्रेजी में श्रेष्ठ अनुवाद का कार्यक्रम। इसके साथ ही इस न्यास के द्वारा प्रतिवर्ष डिस्टिंगविश्ड ट्रांसलेटर अवार्ड भी प्रदान किया जाता है जिसमें मानद पत्र और एक लाख रुपये की राशि अर्पित की जाती हैं। वर्ष 2018 के लिए यह सम्मान प्रतिष्ठित अनुवादक, लेखक, पर्यावरण संरक्षक तेजी ग्रोवर को दिया गया था।